‘धक-धक करने लगा’ वाला गाना तो आपको जरूर याद होगा? अक्सर इस गाने के लिए माधुरी दीक्षित को ‘धक-धक गर्ल’ के नाम से भी बुलाया जाता रहा है। यह गाना ‘बेटा’ नाम की 1992 में आयी हिंदी फिल्म से है। ये फिल्म 1987 में आई तमिल फिल्म “एंगा चिन्ना रसा” का हिंदी रीमेक था। तमिल वाली फिल्म कन्नड़ उपन्यास “मल्लाम्माना पवाडा” से प्रेरित थी। इस उपन्यास पर 1969 में इसी नाम से एक कन्नड फिल्म बन चुकी है। तेलुगु फिल्म “अर्धांगी” भी मिलती जुलती कहानी के आधार पर बंगला उपन्यास “स्वयंसिद्धा” से प्रेरित होकर बनाई गयी थी।
“स्वयंसिद्धा” नाम से ही 1975 में बांग्ला फिल्म बनी थी। “अर्धांगी” को एक बार तमिल में और 1963 में “बहूरानी” नाम से बनाया गया था और 1981 में “ज्योति” नाम से इसी कहानी पर हिंदी में भी फ़िल्में बन चुकी थी। “एंगा चिन्ना रसा” पर भी आगे चल कर कन्नड में “अन्नाय्या”, तेलुगु में “अब्बाईगारू” और ओडिया में “संताना” नाम से फ़िल्में बनीं। यहाँ तक कि “धक-धक करने लगा” वाला गाना भी इल्लैयाराजा के तेलुगु गाने की नक़ल है। असली वाले गाने में श्रीदेवी और चिरंजीवी हैं। ये “जगदेका वीरुदु अतिलोका सुंदरी” नाम की फिल्म में 1990 में आई थी। जाहिर है, अगर एक कहानी पर इतनी सारी फ़िल्में बन चुकी हों, तो वो कहानी जानी पहचानी होगी।
इस कहानी में मोटे तौर पर एक सौतेली माँ होती है जो घर के बड़े (अपने सौतेले) बेटे को पागल बनाने (सिद्ध करने) पर तुली होती है। संपत्ति और दूसरे लालच में ये महिला जिसे पागल बना रही होती है, उसके सामने भली बनी होती है। उसे हमेशा ऐसा लगता है कि खलनायिका ही उसकी सबसे बड़ी हितैषी है, इकलौता संबल है। जबकि असल में वो उसका नुकसान कर रही होती है। देखने वालों को लगता रहता है कि ऐसा कैसे हो सकता है?
मनोविज्ञान के नजरिये से देखें तो इस तकनीक का एक नाम भी है! इसे “गैसलाइटिंग” कहा जाता है। अनोखी चीज़ ये है कि इस तकनीक का नाम भी एक ब्रिटिश नाटक “गैस लाइट” (1938) से आता है जिसपर 1940 और 1944 में “गैसलाइट” नाम से दो बार फ़िल्में बनी।
गैसलाइटिंग मानसिक शोषण का एक ऐसा तरीका है जिसमें बाहरी तौर पर शोषण के लक्षण उजागर नहीं होते। कोई चोट के निशान नहीं दिखेंगे, पोषण में कमी नहीं की जाती, डांट-फटकार जैसी हरकतें भी नहीं हो रही होती। इसमें शोषक और शोषित, दोनों व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह हो सकते हैं। धीरे-धीरे शोषण करने वाला शोषित को पूरी तरह अपने ऊपर निर्भर होना सिखा डालता है। ग्रामीण (और कई बार शहरी) क्षेत्रों में किसी गोरे फिरंगी को देखकर जो लोगों की प्रतिक्रिया होती है, उसे फिरंगियों द्वारा अपने उपनिवेश (भारत) पर की गयी “गैसलाइटिंग” का नमूना कहा जा सकता है। कई संगठन या लेखक जो अपने मत को किन्हीं विदेशियों से अनुमोदित करवाना चाहते हैं, वो भी “गैसलाइटिंग” के कारण ही है।
अपनी 1996 की एक किताब में थिओडोर डोर्पट कहते हैं कि “गैसलाइटिंग” और ऐसे दूसरे तरीके मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी अपने मरीजों पर इस्तेमाल करते हैं। प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के संबंधों में भी “गैसलाइटिंग” अक्सर नजर आ जाएगी। इस “गैसलाइटिंग” का और अच्छा उदाहरण देखना हो तो हिन्दुओं पर, उनके मंदिरों पर, व्यापार पर, घरों पर, हमलों की घटनाओं को देखिए। भारत में कुछ वर्षों पहले चर्च पर हमले की घटनाएँ हुईं।
विश्व भर में इसपर शोर मचा और कहा गया कि हिंदुत्व की विचारधारा का प्रभाव है कि ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं। मामूली जाँच में ही पता चल गया कि ये हमले किसी हिन्दुत्ववादी ने नहीं किये थे। चर्च के पास्टर से हुए झगड़े के कारण ये घटना हुई थी। ऐसे दूसरे मामलों में पता चला था कि एक ईसाई गुट ने वर्चस्व की लड़ाई में दूसरे चर्च पर हमला किया था। ये ईसाई समुदाय में व्याप्त छुआछूत का मामला था।
ऐसी सभी घटनाओं में हमला होने पर तो देश-विदेश की मीडिया हिन्दुओं पर हमलावर रही, लेकिन जब मामला खुला तो उसकी रिपोर्टिंग कहीं कोने में दबा दी गई। ऐसा ही तब भी दिखा जब बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हिन्दुओं के पंडालों पर हमले हुए। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं भारत की मौजूदा सरकार भी इस मुद्दे पर करीब-करीब गूंगी हो गयी ही दिखी। आश्चर्यजनक ये है कि “गैसलाइटिंग” तकनीक का प्रयोग करते हुए ऐसी घटनाओं में पीड़ित पक्ष को, यानी हिन्दुओं को ही हिंसा का दोषी बताया जाता है।
इसका ताजा उदाहरण ब्रिटेन में हिन्दुओं के मंदिरों पर हुए हमले हैं। इस मामले में भी न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे हिन्दू द्वेष से ग्रस्त प्रकाशन हिन्दुओं पर हिंसा का दोष थोपने की कोशिश करते दिखे। कई मीडिया के धड़े ये कहने आ गए कि हिन्दुओं ने उकसाया न होता तो हिंसा न होती! संभवतः चार्ली हेब्दो की हत्या होने पर ये मानते होंगे कि गलती चार्ली हेब्दो के प्रकाशन की थी। या संभव है कि सलमान रुश्दी को ये अपने ही ऊपर हुए हमले का दोषी मानते होंगे।
प्रोपोगैंडा और प्रचार तंत्र के प्रभाव को गोएबेल्स से 1930 के दौर से पहले ही सीख चुकी विचारधाराओं ने प्रचार का इस्तेमाल काफी पहले ही “फोर्थ जनरेशन वॉरफेयर” के तहत करना शुरू कर दिया था। इसका सामना करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति वूडरो विल्सन ने 1917 में ही “कमिटी फॉर पब्लिक इनफार्मेशन” (सीपीआई) की स्थापना कर ली थी। सौ वर्षों बाद भी भारत में ये हो नहीं पाया है। बदलावों के दौर में भारतीय लोगों को विदेशों में हो रही घटनाओं के प्रति आँखें मूंदने के बदले आँखे खोलनी होंगी।
रामचरितमानस की मंथरा जैसा “कोई नृप होए हमें क्या हानि” का जाप करने से आक्रमण के नए हथियारों से तो जीता नहीं जा सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सभी बड़े नेता पढ़ने पर बहुत जोर देते थे। आश्चर्यजनक रूप से सरदार भगत सिंह और आंबेडकर जैसे लोगों का नाम जपने वाले भी कुछ पढ़ते हों, इसकी संभावना कम होती है। गैसलाइटिंग जैसी तकनीकों के बारे में जानना-पढ़ना तो होगा ही, साथ ही अगले कुछ वर्षों में इससे मुकाबला करने की तैयारी भी भारत को करनी होगी।
सोशल मीडिया के फैलाव के दौर में अख़बार और मीडिया चैनल भी फेक न्यूज़ की चपेट में आते हैं। जो दूसरों को व्हाट्स एप्प यूनिवर्सिटी वाला कहते हैं, वो खुद ही फर्जी समाचार फैलाते रहे हैं। सिर्फ “फैक्ट चेक” करने वाली एक पक्षीय वेबसाइट भारत के लिए काफी नहीं। गैसलाइटिंग से मुकाबला करने के लिए जनता की ओर से आवाज और सरकार बहादुर के प्रयास आवश्यक हैं।