करीब पंद्रह वर्ष पहले (2005) में ‘कांस्टेंटीन’ नाम की एक फिल्म आई थी, जो अपने समय में काफी चर्चित रही। कानू रीव्स इस फिल्म में मुख्य अभिनेता के किरदार में थे। करीब 70-100 मिलियन डॉलर की लागत से बनी फिल्म ने विश्वभर में 230 मिलियन डॉलर से अधिक की कमाई कर ली थी, यानि अपनी लागत का दो-तीन गुना कमाया।
सिर्फ दर्शक कैसे हाथों हाथ ले रहे थे, वही इस फिल्म के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता, इसे समीक्षकों ने भी खूब सराहा था। ‘टाइम’ पत्रिका में तो इसके लिए छपा था, “अपने तरह की अनूठी, थियोलोजीकल एक्शन फिल्म”। यानि कि मास और क्लास, दोनों ने इस फिल्म को सराहा था। विशेष तौर पर अपने अनोखे किस्म के अंत के लिए भी ‘कांस्टेंटीन’ को याद किया और सराहा जाता है।
अब जरा सोचिए कि ऐसी ही एक फिल्म भारत में बने तो क्या होगा? मतलब एक ऐसी फिल्म जिसका मुख्य कलाकार नशे में डूबा रहने वाला, आत्महत्या की कोशिश कर चुका, एक तांत्रिक हो, जो लोगों को भूत-प्रेतों से तंत्र-मन्त्र के जरिए मुक्ति दिलाता हो? नायिका एक पुलिस अफसर हो, जो अपने सामान्य अन्वेषण और पूछताछ के तरीके छोड़कर एक तांत्रिक की मदद से जादू-टोना करके अपनी ही जुड़वा बहन की मौत से पर्दा उठाना चाहती हो? खलनायक सीधा नरक से उतरा हुआ शैतान हो?
भारत में तो हाहाकार ही मच जाता। तथाकथित प्रगतिशीलों के गिरोह के गिरोह ऐसी फिल्म के खिलाफ उतर आते। सोशल मीडिया पर एक व्यक्ति ने ऐसी ही टिप्पणी ‘कांतारा’ के बारे में करते हुए कहा कि कहीं जो ये फिल्म कुछ वर्ष पहले आई होती, तो तबाही ही आ जाती। हिंदुत्व के उभार के काल में जनजातीय परम्पराओं को भले बड़े पर्द पर जगह मिल गई हो, थोड़े समय पहले तो ये हो ही नहीं सकता था।
OBSERVE:
— Bharath Muthya (@BharathMuthya) October 28, 2022
If #Kantara would have been made 10 years ago, the same “Ahimsa”vaadis, leftists and the so called rationalists would have shouted from rooftops that this movie promotes superstitions and hence should be banned. They might have even been succeeded in doing so. pic.twitter.com/MlwQNbm80N
ये बात काफी हद तक सच भी है। हाल में जो ‘कांतारा’ की चर्चा थोड़ी धीमी हो चली थी, उसे एक नए विवाद ने हवा दे दी है। अभिरूप बासु नाम के किसी अज्ञात फ़िल्मकार ने फिल्म में जितनी कमियां निकाली जा सकती थीं, सभी एक वाक्य में गिना दीं।
उनके हिसाब से फिल्म ऊँचे सुर की थी, पिछड़ी सोच की थी, कोई चरित्र ढंग से नहीं गढ़ा गया, कहानी भद्दे तरीके से मोड़ लेती है, इत्यादि-इत्यादि। इतना सुनते ही कोई भी अनुमान लगा सकता है कि कहने वाले का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं।
अनुमान गलत भी सिद्ध नहीं होता क्योंकि कोलकाता में जन्मे और रहने वाले ‘ओभीरोप बोसूऊ’ ने प्राग फिल्म स्टूडियो अर्थात विदेशों में निर्देशन की पढ़ाई की है। ‘लाली’ जैसी जो फ़िल्में उन्होंने बनाई हैं, आम आदमी ने शायद उनका नाम भी नहीं सुना होगा। हाँ, ऐसी फिल्मों की उनकी तथाकथित प्रगतिशील जमातों में जमकर तारीफ हुई।

ये बिलकुल उसी बिरादरी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके बारे में ट्विटर पर बात हो रही थी कि कुछ वर्ष पहले जब ये मजबूत स्थिति में थे, उस समय तो ये ‘कांतारा’ जैसी फिल्म बनाने वाले को जेल में ही फेंकवा देते। अगर सचमुच हम उस पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व के दौर में चलें, जब ‘कांस्टेंटीन’ फिल्म आई थी तो हमें एक और घटना का पता चलता है।
पटना (बिहार) के एसके मेमोरियल हॉल में एक आयोजन हो रहा था। इस आयोजन को करवाने वाले थे उस समय के मानव संसाधन विभाग के उस समय के कनिष्ठ मंत्री संजय पासवान (भाजपा) और इस आयोजन में करीब हजार ओझा-गुनी लोग आए। बिहार में पासवान समुदाय अनुसूचित जातियों में आता है और इस समुदाय में ओझा-गुनी करीब-करीब वैसे ही होते हैं जैसा आपने ‘कांतारा’ में भूता-कोला करते ओझा या मुख्य नर्तक पर दैव का आगमन देखा था, कुछ वैसा ही भगत (ओझा-गुनी) के लिए माना जाता है।
पटना में हुए जिस आयोजन की हम लोग बात कर रहे हैं, उसमें हजार ऐसे ओझा-गुनी आए थे। भाजपा नेता संजय पासवान इसका आयोजन कर रहे थे, इसलिए इसमें बिहार भाजपा के तब के राज्य प्रमुख नन्दकिशोर यादव भी आए थे। आयोजन होते ही हंगामा मच गया।
सेक्युलर बिरादरी को तो जैसे बिच्छु ने डंक मार दिया था। चंहुओर इस आयोजन की निंदा शुरू हुई। किसी ने ये कहा ही नहीं कि अनुसूचित जाति से आने वाले पासवान समुदाय की परंपरागत कला-संस्कृति का ओझा-गुनी और उससे जुड़ी नृत्य या दैव के आगमन की कला के लुप्त हो जाने से क्या होगा? तथाकथित प्रगतिशील टूट पड़े। एक अज्ञात सी संस्था इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लॉयर्स की प्रमुख श्रुति सिंह तो गाँधी मैदान थाने में ‘बिहार स्टेट विचक्राफ्ट प्रिवेंशन एक्ट 1999’ के तहत मुकदमा दर्ज करवाने भी पहुँच गई।
ये वो तरीका है जिसके जरिए विविधता के शत्रु सबको एक ही लाठी से हांकने की बात करते हैं। लोककलाओं-लोक परम्पराओं का खात्मा कर डालना चाहते हैं। समाज में संभव है कि कोई युवती सलवार-सूट पहनना चाहे और कोई दूसरी जीन्स-टॉप, लेकिन इन विविधता के शत्रुओं का बस चले तो ये सबको एक जैसे काले तम्बू में घुसा देना चाहते हैं।
इनके किए-धरे का आज नातिजा ये हुआ है कि कई परंपरागत लोक नृत्य और कलाएँ आज या तो लुप्त हो चुकी हैं, या विलुप्ति के कगार पर हैं। आज आवश्यकता है कि समाज को एकरूप कर देने की जबरदस्ती करने पर तुले लोगों का साथ देना है, या जो ‘भारत विविधताओं का देश है’ हम पढ़ते आए हैं, उस विविधता को बचाने वालों का साथ देना है, ये तय किया जाए। विशेष तौर पर जो वंचित-शोषित समुदाय हैं, उनकी सांस्कृतिक पहचान को लिखित रूप में, डाक्यूमेंट्री फिल्मों की तरह, दर्ज किए जाने की जरुरत है।
बाकी इस काम के लिए उस सेक्युलर सरकार का मुंह जोहना है जो प्रगतिशील होने के नाम पर इन्हें मिटाती जा रही है, या युवा ये बीड़ा खुद अपने हाथ में लेंगे, ये आने वाले वर्षों में देखने की बात होगी।