समाजवादी चरित्र और लोहिया का साथ
उत्तर भारत के समाजवादी नेता कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव अपने कॉलेज के दिनों से ही डॉ. राममनोहर लोहिया की कांग्रेस विरोधी समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हो गए थे, और अपने गुरु राममनोहर लोहिया के आशीर्वाद से उनकी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) के टिकट पर 1967 में जसवंतनगर सीट से विधायक बनकर पहले विधानसभा पहुंचे, पर इसी साल लोहिया का देहांत हो गया।

मुलायम के एक दूसरे बड़े जननेता चौधरी चरण सिंह से भी बहुत करीबी सम्बन्ध रहे। यही वह समय था जब मुलायम सिंह यादव धीरे धीरे पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रहे थे, जिसमें उनके राजनीतिक जीवन की आधारशिला रही जातीय वर्ग और अल्पसंख्यकवाद की राजनीति, इसे उन्होंने समाजवाद के आवरण में लपेटकर 1992 में अपनी समाजवादी पार्टी बनाई, और इस तरह मुख्यमंत्री और देश के गृहमंत्री के पद तक पहुंचे।
समाजवादी कहलाने वाले नेता समाज में बसे राम को नहीं समझ सके
समाजवादी कहलाने वाले मुलायम सिंह यादव की समाजवादी राजनीति मुख्यतः जातिगत समाज के बीच ही केन्द्रित रही, विराट सांस्कृतिक समाज के प्रति उनकी वितृष्णा ने बहुसंख्यक वर्ग के समक्ष हमेशा हमेशा के लिए उन्हें गली चौराहों और बाजार में चाय की चर्चाओं में ‘मुल्लायम’ शब्द के लोक रूपक की छवि में कैद कर दिया।

दिन था 2 नवम्बर, 1990, देश में श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन चल रहा था, उस दिन अयोध्या में मुलायम सिंह यादव के राज में एक गोलीकांड हुआ जो एक बर्बर हत्याकाण्ड में बदल गया। हनुमान गढ़ी की प्राचीर से रामलला के टेंट तक की सड़कें और सरयू का पानी लाल रंग का हो गया था, रक्त से! इस घटना का आँखों देखा वर्णन करने वाले पूर्व पत्रकार गिरधारी लाल गोयल की आँखें उसे याद कर भीग जाती हैं, वह लिखते हैं,
“मुलायम सिंह ने कहा था कि ‘अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’ एक तरह से यह चुनौती थी, कारसेवक 30 अक्टूबर को ही अयोध्या में प्रविष्ट होकर ढांचे पर भगवा ध्वज फहरा चुके थे। 14 वर्षीय राजेन्द्र यादव, वासुदेव गुप्त, रमेश पाण्डेय व कुछ अनाम रामभक्तों के बलिदान से लाखों कारसेवक आक्रोशपूर्ण जोश से भरे थे।

मुलायम सिंह यादव के अहं को चूर करने हजारों कारसेवक अयोध्या की हनुमानगढ़ी में जमा थे। वे किसी भी हालत में कारसेवा किए बिना जाने को तैयार नहीं थे। 2 नवम्बर, 1990, कार्तिक पूर्णिमा के दिन कारसेवकों का शांतिपूर्ण ‘कीर्तन सत्याग्रह’ प्रस्तावित था। इसके लिए कारसेवकों को बैठे ही बैठे कीर्तन करते हुये हनुमानगढ़ी से रामलला की ओर सरकते हुए बढ़ना था। अपने को हथियार रहित दिखाने के लिए तालियां बजाते हुए हाथों को सिर के ऊपर भी ले जाना था।

महिला और बुजुर्ग कारसेवकों के लिए प्रशासन ने एक अलग से गैलरी बना दी थी, इस गैलरी से जब बुजुर्ग और महिलाएं गुजरीं तो उन्होंने पुलिसकर्मियों के पाँव छूने शुरू कर दिए। पुलिसकर्मियों के हिन्दू संस्कार जागे। उन्होंने सम्मान स्वरूप महिलाओं-बुजुर्गों को मना किया और पीछे हटने लगे। अब काफी देर से बैठे-बैठे आगे बढ़ते हुए कुछ युवा कारसेवक थककर खड़े होकर इसी गैलरी में जाकर प्रवेश करने लगे।

कोलकाता के राम कोठारी (23 वर्ष) उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश में लग गए। उधर पुलिस ने गोली चला दी जो कि राम कोठारी को जाके लगी। पास ही उनके छोटे भाई शरद कोठारी (20 वर्ष) ने ये देखा तो वो आकर अपने भाई को उठाने लगे कि एक गोली ने उनके भी प्राण पखेरू उड़ा दिए। इसके बाद तो मानो पुलिस विक्षिप्त हो गई। कीर्तन सत्याग्रह स्थल घायल और मृत कारसेवकों के शवों से पट गया।
उस समय तमाम अंग्रेज़ी अखबार अयोध्या के घटनाक्रम को छापने से बच रहे थे, लेकिन हिन्दीभाषी अखबार अपना दायित्व बखूबी निभा रहे थे। गोली से सैकड़ों कारसेवकों की मृत्यु होने के समाचार सभी जगह प्रकाशित हुए थे। एक अखबार ने लिखा- ‘अयोध्या की गलियाँ और सड़कें आज कारसेवकों के खून से सन गईं। अर्धसैनिक बलों की अंधाधुंध फायरिंग से अनगिनत लोग मरे और घायल हुए हैं।”

एक संवाददाता ने लिखा- “मैंने अपनी आँखों से तीस लाशें सड़क पर छितरी हुई देखीं हैं। प्रशासन ने कारसेवकों पर अंधाधुंध गोलियां उस वक्त चलवाईं, जब कारसेवक सत्याग्रह के लिए सड़कों पर बैठ कर रामधुन गा रहे थे। कुछ अखबार वालों ने कारसेवकों की यह कहते हुए मदद की कि आप हमको गोली मार दें, हम अपना काम करेंगे। किसी भी कार सेवक के पैर में गोली नहीं मारी गयी। गोलियां सभी के सिर और सीने पर लगीं। फैजाबाद के रामचल गुप्ता की अखंड रामधुन बंद नहीं हो रही थी। उन्हें पीछे से गोली दाग कर मारा गया।”
यह भारतीय राजनीति का स्याह इतिहास है, जो समाजवादी पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकता।
जमीनी स्तर पर जनता से जुड़ाव और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जातिवादी अमलगम

मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आगे बढाने में अगर सबसे बड़ा हाथ किसी चीज का था तो वह था जमीन राजनीति से जुड़ाव। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल यूं ही आजतक ऊंचे नहीं बने हुए हैं, क्योंकि मुलायम सिंह यादव के समय से ही उन्हें विश्वास था कि कुछ उंच नीच भी हुई तो पार्टी हाथ नहीं छोड़ेगी!
और ऐसा हुआ भी, एक तरफ जहाँ समाजवादी कार्यकर्ताओं के सभी राजनीतिक काम तुरंत किए जाते थे, वहीं दूसरी ओर यह उन्हें उच्छृंखल बना रहा था। कार्यकर्ता बेस के पीछे एक बहुत बड़ी शक्ति काम कर रही थी, अन्य पिछड़ा वर्ग का शक्तिशाली यादव वोटबैंक, जो जाति के नाम पर धीरे धीरे लामबंद हुआ, पर पक्के रूप में हुआ और लंबे समय तक रहा।
वोटबैंक हो या कार्यकर्ता, उसके महत्त्व में मुलायम सिंह यादव ने कोई कमी नहीं रखी। यही वो चीज थी जिसमें चूक की गुंजाईश नहीं थी, और इस कारण MY समीकरण वाला जातिगत और अल्पसंख्यक वोटबैंक एकदम लॉयल बन गया था। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है जैसे एक जातीय संगठन का यदि राजनीतिक रजिस्ट्रेशन करवा लिया जाए तो भी सामूहिक गोठ के आयोजन तो हमेशा चलते ही रहेंगे।
अपने लोगों की गलतियाँ ढकने की सर्वोच्च परिणति थी वो बयान जिसमें मुलायम यादव ने कहा, “लड़के हैं, गलतियाँ हो जाती हैं।” हालाँकि छोटी छोटी छूटें उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपराध को बढ़ावा देने के पीछे एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरी, जिसने सपाई राजनीति पर आपराधिक तुष्टिकरण का स्थायी दाग लगा दिया।
चीन पर अपने गुरु डॉ. लोहिया के स्टैंड पर रहे कायम
मुलायम सिंह यादव जून 1996 से मार्च 1998 के दौरान देवेगौड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व काल में देश के रक्षामंत्री रहे। तब्बत पर चीन के कब्जे, 1962 के भारत चीन युद्ध, अरूणाचल में चीनी अतिक्रमण, वैश्विक स्तर पर चीन के भारत विरोध को लेकर मुलायम सिंह यादव हमेशा चीन को पाकिस्तान से भी बड़ा दुश्मन बताते थे।

हाल ही में, 2017 में डोकलाम विवाद पर संसद में चर्चा के दौरान मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि भारत का सबसे बड़ा मुद्दा पाकिस्तान नहीं बल्कि चीन है। मुलायम सिंह ने तिब्बत को चीन को सौंपने को भारत की बड़ी भूल कहते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार की भी आलोचना की थी।
इसका कारण था कि मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरु डॉ. राममनोहर लोहिया के भी यही विचार थे और साल 1958 में जब चीन ने तिब्बत पर हमला किया तो लोहिया ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चेताते हुए तिब्बत पर चीनी कब्जे को अमान्य करार देने की अपील की थी।
आपातकाल में गए थे जेल
1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान मुलायम सिंह यादव को भी गिरफ्तार किया गया और वह 19 महीने तक जेल में रहे। ये एक बात उनके जीवन के सकारात्मक पक्ष को दिखाती है, इसलिए पीएम मोदी ने भी उन्हें आपातकाल के दौरान लोकतंत्र का प्रमुख सैनिक कहते हुए श्रद्धांजलि दी है।
Mulayam Singh Yadav Ji distinguished himself in UP and national politics. He was a key soldier for democracy during the Emergency. As Defence Minister, he worked for a stronger India. His Parliamentary interventions were insightful and emphasised on furthering national interest. pic.twitter.com/QKGfFfimr8
— Narendra Modi (@narendramodi) October 10, 2022
परिवारवाद के लिए सब कुछ किया, पर अखिलेश की महत्वाकांक्षा पड़ गई भारी
भारत के क्षेत्रवादी वंशवादी दलों की तरह मुलायम सिंह यादव ने भी परिवारवाद के पालन पोषण में अपनी पार्टी का पूर्ण सामंजस्य बैठाया और, सैफई केन्द्रित विराट यादव परिवार का विभिन्न राजनीतिक पदों पर उसी तरह समायोजन किया जिस तरह कोई राज्य सरकार तीव्र आन्दोलन के बाद अस्थायी संविदा कर्मचारियों का समायोजन करती है।

इस बीच यादव वंश में अन्तर्विरोध के सुरों की कर्कश गूंजें उत्तरप्रदेश के राजनीतिक गलियारे में कुछ यूं गूंजी कि चाचा भतीजों का हँसमुख कहा जाने वाला रिश्ता शीतयुद्ध के रूप में सामने आया। अपने बड़े भाई के प्रति समर्पित लक्ष्मण जैसे शिवपाल यादव कभी पार्टी छोड़ने पर मजबूर होते, कभी उनकी नई पार्टी के कार्यक्रम में स्वयं मुलायम पहुँचते, कभी उनका अखिलेश यादव से गठबंधन हो जाता, तो कभी उसके तुरंत बाद चाचा जी के दूसरी पार्टियों की ओर मुँह करने की खबरें आती। पर हद तो तब हो गई जब अखिलेश ने एक मंच पर मुलायम सिंह यादव से ही चिल्लाते हुए माइक छीन लिया था!
इधर एक पुराना द्वंद्व और चल रहा था, प्रतीक और अखिलेश का द्वंद्व। मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता के बेटे प्रतीक यादव सपा की जातिवादी राजनीति में आखिरकार फिट नहीं हो पाए तो उनकी पत्नी अपर्णा यादव ने आखिरकार भाजपा का दामन थाम लिया। यहाँ एकदम करीबी परिवार में तमाम समायोजन विफल हो गए। तीन महीने पहले ही साधना गुप्ता का देहांत हुआ और अब मुलायम सिंह यादव था।
देखना ये होगा कि जिस जातीय अल्पसंख्यक तुष्टिकरण वाली राजनीति को मुलायम सिंह यादव ने इतने दशकों तक चलाया, क्या अखिलेश उसे आगे बढ़ा पाएँगे।
रामपुर तिराहा काण्ड: सिर्फ़ अयोध्या ही नहीं, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों पर भी चलवाई थीं गोलियाँ
मुलायम सिंह यादव सिर्फ़ अयोध्या के कारसेवकों के ही अपराधी नहीं थे। मुलायम सिंह यादव ने ही उत्तराखंड राज्य को ऐसे गहरे ज़ख़्म दिए जिनकी यादें शायद ही कभी धुंधला सकेंगी।
2 अक्टूबर, 1994 हर उत्तराखंडी के लिए एक काला दिन रहेगा, जब देश ने शासन की उस क्रूरता को देखा कि कैसे शासन के सभी अंग मिलकर दिल्ली के राजघाट पर धरना देने के लिए आगे बढ़ रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए हत्या और बलात्कार को ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में तब सपा-बसपा गठबंधन का शासन था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। 2 अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड के गांवों और कस्बों से शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी राजघाट पर धरने के लिए दिल्ली जा रहे थे। जैसे ही राज्य आंदोलनकारी, जिसमें पुरुष, महिला, लड़के और लड़कियाँ सभी शामिल थे, से भरीं बसें रामपुर तिराहा पहुंचीं, पुलिस ने उन्हें रोक दिया।

प्रदर्शनकारियों ने अपनी बसों को दिल्ली जाने की अनुमति देने की माँग की, लेकिन समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के स्पष्ट आदेश के तहत तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह की पुलिस अड़ी रही। कुछ ही देर में आईएएस अनंत कुमार सिंह ने यूपी पुलिस को असहाय प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया।
6 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई और कई पुरुष और महिलाएं अपनी जान बचाने के लिए पास के गन्ने के खेतों की ओर भागे, पुलिसकर्मियों ने उनका पीछा किया और कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया। कई प्रदर्शनकारियों को खेतों में ही प्वाइंट ब्लैंक रेंज में गोली मार दी गई, उनमें से कई गंभीर रूप से घायल हो गए।
सीबीआई द्वारा इन पुलिस अधिकारियों को कई महिलाओं के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ में दोषी पाए जाने के बावजूद इन दस लोगों पर कभी मुकदमा नहीं चलाया गया क्योंकि किसी सीएम ने उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी। आरोपित बुआ सिंह बाद में यूपी पुलिस के डीजीपी तक बन गए। यहां तक कि न्यायमूर्ति जहीर हसन ने भी बल प्रयोग को न्यायसंगत और उचित ठहरा दिया था।
अगले दिन जैसे ही हत्या और बलात्कार की खबरें देहरादून पहुंचीं और शव आने लगे तो दून अस्पताल और अन्य जगहों पर लोगों का जमावड़ा लगने लगा। मुलायम शासन की यूपी पुलिस यहीं नहीं रुकी – उसने खटीमा, मसूरी और हल्द्वानी और कई अन्य स्थानों में भी प्रदर्शनकारियों की हत्या की।
कुछ प्रमुख तारीख़ें
- 1-9-1994 खटीमा गोलीकांड 7 मौत
- 2-9-1994 मसूरी गोलीकांड 6 मौत
- 2-10-1994 रामपुर तिराहा गोलीकांड 7 मौत, अनेक बलात्कार
- 3-10-1994 देहरादून गोलीकांड 4 मौत
- 3-10-1994 कोटद्वार गोलीकांड 2 मौत
- 3-10-1994 नैनीताल गोलीकांड 1 मौत
- 10-11-1994 श्रीयंत्र टापू गोलीकांड 2 मौत
उत्तराखंड के लोगों को चिन्हित किया गया और अपराधियों की तरह उनके घरों की तलाशी ली गई। पंजाब पुलिस को बुलाकर उत्तराखंड में तैनात किया गया। इन राज्य प्रेरित हिंसक घटनाओं से उद्वेलित उत्तराखंड फिर उत्तर प्रदेश में एकरस नहीं हो पाया। बाद में अटल बिहारी वाजपयी सरकार के दौरान 9 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड राज्य को उत्तर प्रदेश से अलग कर नए राज्य के रूप में पुनर्गठित किया गया।