नवरात्रि के 9 दिन आराधना, प्रार्थना और कठोर तप के हैं। एक कहावत भी है कि इन दिनों घोर तामसिक व्यक्ति भी पवित्र वातावरण में देवी की आराधना में व्यस्त रहता है। सनातन धर्म में शारदीय नवरात्र के तांत्रिक विधान भी हैं और गहनतम सात्विक विधान भी। तांत्रिक विधान इतने गुप्त और गुह्य तरीके से किए जाते हैं कि वह सामान्य मनुष्य की दृष्टि में भी नहीं आते।
बहरहाल, हम अपनी बात आगे कहें, उससे पहले आपको हाल ही में घट रही कुछ घटनाओं के बारे में बताते हैं।
हिंदुओं के हरेक पर्व पर बवाल क्यों?
-यूपी के लेक्चरर मिथिलेश गौतम ने लिखा कि नवरात्रि में व्रत करने की जगह संविधान पढ़ो।
-स्वरा भास्कर की तकलीफ ये है कि गुजरात में कुछ जगहों पर गरबा में गए गैर-हिंदुओं को नहीं घुसने दिया जा रहा है।
– कुछ कथित लिबरल, ‘वोक’ लोग बोल रहे हैं कि यह तो यानी गरबा सांस्कृतिक यानी कल्चरल बात है, इसका धार्मिक यानी रिलिजियस मतलब नहीं है।
– कथित संतों (!) की माँग है, बल्कि आदेश है कि गरबा से लेकर हिंदुओं के मंदिरों तक, वक्फ बोर्ड की चले और इसके बावजूद हिंदू आगे भी हमेशा इस बात के लिए तैयार रहे कि अगला आदेश उसके लिए क्या आता है?
‘बुद्धिजीवियों’ को अपने ही कुतर्कों पर शर्म नहीं आती?
यह बातें सुनकर इस लेखक को हँसी आती है और साथ ही याद आती है जेएनयू के दिनों की बातें। तब भी इसी तरह के ‘कु’तर्क थे, इसी तरह कल्चरल-रिलिजस की डिबेट थी, इसी तरह हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की जिद थी।
तब लाइब्रेरी से लेकर हॉस्टल के कॉरिडोर तक नमाज की इजाजत थी, क्योंकि वह ‘सांस्कृतिक’ कार्य था, हरेक हॉस्टल-वासी के मेस-बिल में इफ्तार के महीने में पैसे चढ़ा दिए जाते थे, बिना धर्म देखे- क्योंकि, रोजा एक ‘धार्मिक’ कृत्य नहीं था और हम धर्मनिरपेक्ष देश के निवासी थे। वहीं, जब कुछ हिंदू विद्यार्थियों ने दुर्गापूजा के दिनों फलाहार की माँग की, तो लगा कि गुनाह-ए-अजीम हो गया। क्यों? क्योंकि, वह ‘धार्मिक’ बात थी।
खैर, वह विषय एक अलग लेख की ही माँग करता है। फिलहाल, अभी गरबा और उससे जुड़े विवादों की बात करें।
बुत हमको कहें काफिर
जो ‘वोक’ कल्चरल बनाम रिलिजस की बहस चला रहे हैं, उनसे केवल एक बात कहनी है। भारत और सनातन का कोई त्योहार ऐसा नहीं जो धार्मिक होने के साथ सांस्कृतिक न हो, या सांस्कृतिक होने के साथ प्राकृतिक न हो।
सनातन का तो हरेक पक्ष ही प्रकृति, धर्म और उत्सव से जुड़ा है।
दूसरी बात, अगर होली के रंग कपड़े पर गिर जाएँ तो दंगों की आशंका रहती है, मस्जिदों के आगे से अगर विसर्जन का जुलूस डीजे के साथ निकले तो भयंकर सुरक्षा के बीच उसे जाना होता है, कोई भी धार्मिक काम हो और अगर उसे समुदाय-विशेष के जमावड़े वाले मुहल्ले से निकलना है तो लोग सहमते हुए करते हैं, फिर ये गरबा में इतना विशेष क्या है?
गरबा को राग-रंग का कार्यक्रम समझनेवाले स्वरा भास्कर जैसे मूर्खों-मूर्खाओं की जानकारी के लिए बता दें कि गरबा का मूल तो गर्भदीप है।
लड़कियाँ और महिलाएँ एक दीपक वाले घड़े के चारों ओर डांडिया लेकर नृत्य करती हैं। ठीक इसी तरह का नृत्य बिहार में लड़कियाँ करती हैं, जिसे ‘झिझिया’ कहते हैं। यह नृत्य माँ की आराधना का ही एक प्रकार है, कोई पब या बियर-बार में होनेवाला ‘रंबा हो’ नहीं।
गरबा के पीछे भी मूलतः सांस्कृतिक-धार्मिक कहानी है तो झिझिया के पीछे भी पौराणिक-धार्मिक आख्यान। झिझिया में भी एक छिद्रदार घड़े के बीच में दीपक जलता है, जिसे सिर पर रखकर लड़कियाँ नाचती हैं।
हमारी सुरक्षा हमारे हाथ है
दरअसल, इस सारी कथित बहस और बेबुनियाद बहसों की जड़ में हिंदुओं की असावधानी ही है।
2019 में नवरात्रि में “बीयर फेस्टिवल” के विज्ञापन चले, तो गरबा में मैनफोर्स कंडोम ले जाने की हिदायत इस देश की सबसे बड़ी सशक्तीकृत, समाजसेविका, क्रान्तिकारिणी सनी लियॉन दे रही थीं।

गरबा के दौरान कंडोम की बिक्री में बढ़ोतरी के बढ़े हुए आँकड़े भी दिए गए।
मतलब गरबा में जाने का एकमात्र लक्ष्य वही है, न!

उसी समय अगर एकजुट विरोध हुआ होता, तो शायद आज ये दिन न देखने पड़ते। इसके अलावा भी हमारे त्योहार पर किस तरह से हमला हो रहा है, इसकी कुछ बानगी नीचे देखिए।
दुर्गा माता को गाली देने के प्रयोग तो “मूलनिवासी आंदोलन” के नाम पर चल ही रहा है। वह डीयू का प्रोफेसर केदार आपको याद है, जिसने माँ दुर्गा को गाली दी थी।

हमले किस-किस रूप में
हिंदुओं के त्योहारों पर हमले चौतरफा होते हैं। आपके उपवास पर हमला होगा, तो अगर करवा-चौथ में पत्नी भूखी है, तो उसे पिछड़ेपन की निशानी बताने से नहीं चूकेंगे।
कुछ लोग इस बात की भी याद दिला रहे हैं कि कौन सी मां बच्चों के भूखे रहने पर खुश रहेंगी? (वैसे, इनसे पूछ लें कि रोजा के 40 दिन ये कुछ क्यों नहीं बोलते, तो इनके मुँह में ताले पड़ जाएँगे।)
अब आइए बुद्धिभ्रष्ट नारीवादियों पर!
—-“9 दिनों तक पूजा करो, बाकी दिन छेड़खानी।”
—–“पहले अपने आस-पास की लड़कियों से बुरी नज़र हटाओ तब नवरात्र करना!”
—–“इन पुरुषवादियों को यही चाहिए, या तो देवी बना देंगे या फिर पैरों की जूती”!
इन कुबुद्धि वामाचारियों के मुताबिक हरेक पुरुष “पोटेंशियल रेपिस्ट” है और जब तक “फ्री सेक्स” की वकालत नहीं हो, तब तक आप किस काम के?
आखिर, रास्ता क्या है?
रास्ता है- हमारा गर्वोन्नत मस्तक, धार्मिक भाव से भरा पूरा हमारा हृदय और चाक-चौबंद हमारा मस्तिष्क। हम अगर अपने धर्म, अपने देवी-देवताओं और अपने आसपास को लेकर चौकस नहीं रहेंगे, तो हमले तो चौतरफा हो ही रहे हैं।
सनातनियों का हरेक पर्व-त्योहार निशाने पर है। कभी होली में पानी, कभी वीर्य के गुब्बारों, कभी जलीकट्टू, कभी शबरीमाला, कभी शनि-शिंगणापुर, तो कभी हांडी की ऊंचाई को लेकर!
क्या हम सुधरने को तैयार हैं?
बात सहिष्णुता की हो ही रही है, तो जरा लिख के बता दीजिये कि हिन्दुओं को क्या क्या सहन करना है, और क्यों सहन करना है?