तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के करीबी, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री, गदर पार्टी के सहयोगी रहे प्रताप सिंह कैरों का आज ही के दिन यानी 1 अक्टूबर, 1901 को जन्म हुआ था।
प्रताप सिंह का जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के ‘कैरों’ गाँव में एक सिख-जाट परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा पंजाब से की थी. यहाँ के खालसा महाविद्यालय से उन्होंने स्नातक की डिग्री ली थी। सिंह सभा आंदोलन के बाद ही खालसा महाविद्यालय अस्तित्व में आया था। कैरों पढ़ने में मेधावी छात्र थे और 1916 में महाविद्यालय में जुनियर कॉमन कक्ष के सचिव बने थे।

स्नातक की पढ़ाई के बाद वो अमेरिका चले गए। जहाँ से उन्होंने दो विषयों में मास्टर्स की डिग्री ली। पहली बर्कले विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र से और दूसरी राजनीति विज्ञान में मिशिगन विश्वविद्यालय से ली थी। कैरों ने इस दौरान वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया था। यहीं से उन्होंने भारतीय राजनीति में रुचि लेना शुरू कर दिया था।
राजनीतिक जीवन
अमेरिका में पढ़ाई कर रहे कैरों भारत में गाँधी द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों से प्रेरित होकर 1929 में भारत लौट आए थे। देश वापसी के बाद उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार ‘द न्यू एरा इन अमृतसर (The new era in Amritsar)’ निकाला था। हालाँकि, भारतीय राजनीति में सक्रिय होने और आंदोलनों में भाग लेने के बाद अंग्रेजों ने अखबार का प्रकाशन बंद करवा दिया था।

1926 में वे इंडियन नेशनल कॉन्ग्रेस से जुड़े और स्वतंत्रता मिलने तक इसके आंदोलनों में भी भाग लेते रहे। साथ ही, 1929 में शिरोमणि अकाली दल में भी शामिल हुए। कैरों ने असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। अंग्रेजों ने उन्हें 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण 5 वर्ष तक जेल में डाल दिया था।
हालाँकि, इससे पहले कैलिफोर्निया में रहने के दौरान वो गदर पार्टी के संपर्क में आए. यह पार्टी अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीयों द्वारा 1913 में सैन फ्रांसिस्को में बनाई गई थी, जिसके संस्थापक लाला हरदयाल और अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना थे। इस पार्टी का विदेश में रह रहे भारतीयों पर गहरा प्रभाव था।
लाला हरदयाल
लाला हरदयाल सिंह माथुर का जन्म दिल्ली में 14 अक्टूबर, 1884 को हुआ था। भारत में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वो विदेश चले गए थे। जहाँ उन्होंने संस्कृत में अध्ययन के लिए ऑक्सफॉर्ड विश्वविद्यालय से दो छात्रवृतियां प्राप्त की थी।
लाला हरदयाल ने सेंट जोंस कॉलेज के दौरान पॉलिटिकल मिशनरी नाम की संस्था भी बनाई थी। यह भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की ओर मुख्य धारा में मोड़ने का काम करती थी।
वर्ष 1908, में भारत लौटने के बाद वो ‘पंजाब’ नामक अंग्रेजी अखबार के संपादक भी बने। गिरफ्तारी की चर्चा के बीच लाला लाजपत राय के कहने पर वो देश छोड़कर पेरिस चले गए। यहाँ वो श्याम कृष्ण वर्मा और भीकाजी के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने ‘वन्दे मातरम’ और ‘तलवार’ नामक पत्रों को संपादित किया।

वर्ष 1910, में वो अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को पहुँचे। यहाँ से उन्होंने ‘गदर’ नामक पत्र निकाला और भारत से गए मजदूरों को एकत्र करना शुरू किया। 25 जून, 1913 को सैन फ्रांसिस्को के एस्टेरियो में गदर पार्टी का गठन हुआ। संस्थापक अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना रहे।
लाला हरदयाल के गदर पत्र से ही गदर पार्टी का उदय हुआ, जिसकी विचारधारा अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंंकने की थी। लाला हरदयाल ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में सशस्त्र क्रांति को भी प्रोत्साहन दिया था।
गदर पार्टी
गदर पार्टी के अध्यक्ष वैसे तो सोहन सिंह भाकना रहे लेकिन, इसकी मुख्यधारा के पीछे लाला हरदयाल के विचार रहे। लाला हरदयाल को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से निकाला गया था।
लाला हरदयाल द्वारा अमेरिका में भारतीयों को एकजुट करने के प्रयास से ही गदर पार्टी धरातल पर आई थी। इस पार्टी में बड़ा हिस्सा पंजाब के पूर्व सैनिक और किसानों का रहा। प्रताप सिंह कैरों भी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शामिल रहे थे।
पार्टी द्वारा ब्रिटिश हुकूमुत के खिलाफ हिंदी और उर्दू में हिंदुस्तान गदर नामक अखबार का संचालन किया गया था। पार्टी वर्ष 1914, में हुए कामागाटामारू काँड के बाद अंग्रेजों के खिलाफ अधिक सक्रिय हो गई थी।
कामागाटामारू काँड
वर्ष 1914, में कमागाटामारू काँड हुआ था। वर्ष 2016, में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टुड्रो ने अपने देश की तरफ से इस घटना पर भारतीयों से माफी माँगी थी।
दरअसल, 1914 में भारतीय आंदोलनकारियों का एक जत्था कनाडा के बैंकुवर तट पर लंगर डालना चाहता था। इसमें 376 लोग सवार थे। हालाँकि, कनाडा ने इसके लिए उन्हें मना कर दिया था. इस फैसले के कारण कई भारतीयों की मृत्यु हो गई थी।
इस दौरान ही गदर आंदोलन का उदय हुआ था, जिन्होंने कनाडा पर दबाव डाला था कि वो जहाज पर सवार जत्थे को उतरने दे लेकिन, इसको वापस भेज दिया गया था।

6 महीने तक समुद्र में घुमने के बाद आखिरकार यह जहाज कोलकाता के बज बज बंदरगाह पर पहुँचा था। हालाँकि, यहाँ पर भी इसको पंजाब जाने को बोल दिया गया था, जिसका सभी यात्रियों द्वारा विरोध किया गया।
अंग्रेजी हुकूमत उस समय प्रथम विश्व युद्ध और गदर पार्टी द्वारा चलाए जा रहे अभियानों से जुझ रही थी। इसी को शांत करने के लिए 29 सितंबर 1914 को जहाज पर सवार बाबा गुरदीत सिंह और अन्य नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को भेजा गया, जिसका अन्य सवारियों द्वारा विरोध किया गया था।
विरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने निहत्थे यात्रियों पर गोलियाँ बरसाई, जिसमें 18 यात्रियों की मौत हो गई। बाबा गुरदीत बचने में कामयाब रहे थे। घटना के बाद गदर पार्टी के नेताओं का रोष चरम पर था। उन्होंने इसके बाद अंग्रेजी सरकार का विद्रोह और उनकी हत्या के लिए भारत में गदर आंदोलन चलाया।
गदर आंदोलन
गदर पार्टी के मुख्यालय युगांतर आश्रम से एक पोस्टर जारी हुआ, जिसमें लिखा था ‘जंग दा होका’ मतलब युद्ध की घोषणा। 1914 से ही पार्टी के नेताओं मे सभी भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्रोह के लिए एकजुट करना शुरू कर दिया था। पार्टी के अध्यक्ष सोहन सिंह भोकना भी जापान से भारत के लिए रवाना हुए थे।
पार्टी के करीब 8 हजार सदस्य भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने आ रहे थे। हालाँकि, अंगेजों को उनकी योजना की भनक लग गई और कामागाटामारू प्रकरण के बाद इन सभी मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
भारत में गदर पार्टी के अन्य क्रांतिकारियों से भी संबंध स्थापित हुए। विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराबा, रास बिहारी बोस, भाई परमानंद का इसको साथ मिला। पार्टी ने क्रांति करने की एक तारीख तय की थी..21 फरवरी, 1915।
लाहौर की मीयांमीर छावनी और फिरोजपुर छावनी को इस विद्रोह के लिए चुना गया था। फिरोजपुर छावनी में अंग्रेजों को पराजित करने के लिए गोला बारूद और हथियारों का संग्रहण किया गया था। गदर विद्रोह मीयांमीर, फिरोजपुर, मेरठ, लाहौर, दिल्ली के साथ-साथ कोहाट बन्नू और दीनापुर में सक्रिय था।
हालाँकि, इसकी खबर अंगेजों को लग गई और उन्होंने हथियारों के गोदामों पर कब्जा कर लिया। गदर पार्टी के कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें से 102 गदर नेताओं पर मुकदमा चला, जिसे लाहौल कॉन्सपेरेंसी के नाम से जाना जाता है। इस केस में 7 को फाँसी की सजा, 45 को उम्रकैद और कुछ को 8 माह से 4 वर्ष तक की सजा सुनाई गई। साथ ही, मुकदमें में 17 नेताओं को भगोड़ा घोषित किया गया था।
बात यहीं नहीं रुकी, उस समय पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिटिश सरकार से विशिष्ट प्रवाधान बनाने की माँग की थी, जिससे उनके खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सके। इसके चलते ही ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल’ आया था। फिर, 13 सितंबर, 1915 को 25 गदर नेताओं को मौत की सजा और बाकी को उम्र कैद की सजा सुनाई गई।
आजादी के बाद प्रताप सिंह कैरों
भारत की आजादी के बाद प्रताप सिंह कैरों पंजाब की राजनीति में सक्रिय हो गए। शुरुआती दिनों में उनका संबंध शिरोमणि अकाली दल से रहा और बाद में वो कॉन्ग्रेस से जुड़ गए। कैरों उन लोगों में शामिल रहे जो पंजाब में हिंदी भाषा के खिलाफ थे।
उनका कहना था कि पंजाब में स्थानीय भाषा इसे देश से तोड़ने का काम नहीं करती हैं। यहाँ तक की प्रताप सिंह ने पंजाब के तत्कालीन प्रधानमंत्री भीम सेन सच्चर का हिंदी को बढ़ावा दने वाले लोगों के खिलाफ कदम नहीं उठाने पर कड़ा विरोध किया था।
प्रताप सिंह कैरों ने विधायक के चुनाव लड़े और मुख्यमंत्री के पद तक भी पहुँचे। कैरों 1956 से 1964 तक पंजाब के मुख्यमंत्री पद पर रहे। 1962 में चीन से युद्ध के दौरान उनके द्वारा उठाए गए कदमों को सराहना भी मिली।
नेहरू के करीबी रहे कैरों को पंजाब में हुए कृषि, रोजगार में विकास का श्रेय दिया गया। साथ ही, देश के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री की रूप में पहचान भी बनी।

हालाँकि, जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात राजनीति में मिल रही उनकी सफलताओं पर अकुंश लग गया। मुख्यमंत्री के पद पर रहते ही कैरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। इनके चलते उन्होंने अपने पद से इस्तीफा भी दिया।
भ्रष्टाचार के आरोपों में जाँच सामने आई, जिसमें कैरों को क्लीन चिट मिली। इसके बाद उन्होंने तत्कालीन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। हालाँकि, इसके कुछ समय पश्चात ही उनकी हत्या कर दी गई थी।
बदले की साजिश या राजनीतिक हत्या
6 फरवरी, 1965 का दिन था। प्रताप सिंह कैरों अपने निजी सहायक और दो आईएएस अधिकारियों के साथ फिएट कार से दिल्ली से अमृतसर की ओर लौट रहे थे। जब उनकी गाड़ी सोनीपत के रसोई गांव पहुँँची तो पहले से घात लगाकर बैठे हमलावरों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
घटना में कैरों के निजी सहायक और दोनों आईएएस अधिकारियों को भी जान गवांनी पड़ी थी। पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल करने पर वर्ष 1966, में मामले की सुनवाई शुरू हुई।
पुलिस ने सुचा सिंह, बलदेव सिंह, नाहर सिंह, सुख लाल, दया सिंह को आरोपी बनाया था। मुख्य आरोपित सुचा सिंह के अनुसार, अपने पिता और दोस्त की हत्या का बदला लेने के लिए उसने कैरों की हत्या की थी।
वर्ष 1969, में फरार आरोपित दया सिंह को छोड़कर सभी को मौत की सजा सुनाई गई थी। हालाँकि, 1972 में दया सिंह पुलिस के हाथ आ गया। अक्टूबर, 1972 को बाकी चार आरोपितों को फाँसी पर चढ़ा दिया गया था।
इसके बाद दया सिंह को भी 1972 में ही फाँसी की सजा सुनाई गई थी। हालाँकि, मामले मेंं दया याचिका के जरिए आरोपित की सजा को फाँसी से बदलकर उम्रकैद में बदल दिया गया था।