राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा अब आंध्र प्रदेश में है। राहुल चल रहे हैं। भीड़ जुट रही है। वे प्रदेश के हिंदू मठ भी पहुँचे। धोती और अंगवस्त्र में लिपटी उनकी फोटो जारी हुई। तमिलनाडु में हिंदुओं के विरुद्ध मुखर रहे ईसाई मठाधीशों से होते हुए हिंदू मठ तक पहुँचना एक विकट राजनीतिक जरूरत है, जिसका उन्हें भान है।
परिस्थितियों को देखते हुए आंध्र प्रदेश में हिंदू मठ का बचे रहना और उस तक एक सेक्युलर कॉन्ग्रेसी नेता का पहुँचना सामान्य घटना नहीं है। राहुल का कहना है कि वे आंध्र प्रदेश में मिले स्वागत से अभिभूत हैं। स्वाभाविक है कि कॉन्ग्रेस पार्टी और उनके समर्थक इसे उनकी राजनीतिक सफलता बताएँगे ताकि आशा की वह किरण चमकती रहे जो भारत जोड़ो यात्रा का आधार है।
पिछले कुछ दिनों में राहुल गाँधी की कई तस्वीरें जारी हुई हैं, जिनमें उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई है। उन तस्वीरों को देख कुछ लोगों का मानना है कि यात्रा ख़त्म होते-होते राहुल मार्क्स की तरह दिखने लगेंगे। ऐसा होता है या नहीं, यह तो समय बताएगा पर वैचारिक रूप से राहुल गाँधी मार्क्स बनने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहे हैं।
प्रश्न यह है कि ऐसी दाढ़ी को बढ़ने देने और सावधानीपूर्वक उस दाढ़ी में उनकी तस्वीर बार-बार जारी करने का उद्देश्य क्या है? क्या कॉन्ग्रेस पार्टी एक युवा की उनकी छवि से छुटकारा पाना चाहती है? क्या पार्टी उन्हें एक अनुभवी नेता के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है? वैसे तो ऐसे प्रयास की यह पहली कोशिश नहीं है। फोटो और वीडियो के जरिये एक अनुभवी नेता के रूप में उनकी प्रस्तुति की एक असफल कोशिश पिछले वर्ष हो चुकी है।
प्रश्न फिर से वही उठता है कि फिर से ऐसी कोशिश क्यों? क्या पार्टी अब स्वीकार कर चुकी है कि एक युवा के रूप में राहुल की प्रस्तुति के साथ उनकी ‘पप्पू’ की छवि (हम इस छवि पर बात करने के समर्थक नहीं हैं) चिपक जाती है? यदि ऐसा है तो यह विचार ‘पार्टी के मन’ में यात्रा से पहले ही आया होगा और पार्टी द्वारा इस यात्रा का इस्तेमाल उनकी एक नई छवि की प्रस्तुति के लिए किया जा रहा है।
बस मेरे विचार में उनकी पार्टी को एक सावधानी बरतने की आवश्यकता है और वह है, उन्हें फिर से किसी छवि में कैद न कर देना। उनकी पार्टी के लिए यह सुनिश्चित करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनके परिवार के लिए राहुल का पहले नेता और बाद में प्रधानमंत्री बनना।
भारतीय राजनीति में यात्रा की महत्ता पुरानी है। राजनीतिक साध्य के लिए यात्राओं का इस्तेमाल पिछले सौ वर्षों में बार-बार हुआ है। महात्मा गाँधी की रेल यात्रा, उनकी दांडी यात्रा और अन्य यात्राओं का ऐतिहासिक महत्व है। उन्होंने कई बार सफलतापूर्वक ऐसी यात्राएँ की।
दक्षिण में कॉन्ग्रेस पार्टी के ही बड़े नेता कामराज भी अपनी यात्रा के लिए जाने जाते हैं। एनटी रामाराव ने 80 के दशक में अपने राज्य में समर्थन जुटाने के लिए यात्रा की थी। 80 के ही दशक में चंद्रशेखर और लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने उद्देश्यों के लिए सफल यात्राएँ की।
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए ऐसी यात्रा की। तमाम राजनेताओं द्वारा की गई यात्राएँ राहुल गाँधी की प्रेरणा के मूल में अवश्य होंगी।
आधुनिक मैनेजमेंट की तमाम सीखों में एक प्रमुख और सरल सीख है किसी और की सफलता के मार्ग पर चलकर अपने लिए सफलता प्राप्त कर लेना। एक तरह से सफलता की नक़ल करना। राहुल गाँधी यही कर रहे हैं। उन्हें यह करने का अधिकार भी है।
एक मूल प्रश्न पर बात अटक जाती है और वह है, राहुल की री-लॉन्चिंग पैड के रूप में यात्रा को अंतिम साधन या अंतिम अस्त्र के रूप में इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है? क्यों नहीं अखबारों की सम्पादकीय, पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ, एक रिबेल के रूप में उनकी प्रस्तुति (कैबिनेट द्वारा पारित अध्यादेश की चीर-फाड़ का सीन याद करें) और बनावटी सवाल-जवाब सेशन के आयोजन से पहले इस यात्रा का आयोजन किया गया?
यह ऐसा प्रश्न है जिससे उनकी पार्टी अपना मुँह मोड़ लेगी। दरअसल अन्य नेताओं और राहुल गाँधी की यात्रा का मूल अंतर उनकी पार्टी को ऐसा करने के लिए मजबूर करेगा।
अब देखना यह है कि इस विराट आयोजन का परिणाम क्या होता है? इस आयोजन का उद्देश्य वही है, जो बताया जा रहा है या कुछ और है जिस पर चर्चा नहीं की जा रही? देखना यह है कि राहुल गाँधी निज को कॉन्ग्रेस के एक नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं या एक ‘फार लेफ्ट एक्टिविस्ट’ के रूप में, जो भारत की फॉल्ट लाइन्स को एक्सप्लॉइट करने के लिए सदा तत्पर रहता है।
यात्रा के दौरान दक्षिण के राज्यों में उनकी इतने लंबे समय की उपस्थिति का (वो भी तब जब गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव सामने हैं) का अभी तक कोई सहज कारण नहीं बताया जा सका है। ये ऐसे प्रश्न हैं, जो यात्रा के दौरान और उसके पश्चात भी उठाए जाएँगे और इनके सहज उत्तर उनकी पार्टी शायद ही दे सके।
राहुल गाँधी की अभी तक की तमाम लॉन्चिंग और री-लॉन्चिंग की असफलता का एक कारण रहा है ऐसे आयोजनों के दौरान या उसके बाद राहुल गाँधी का सार्वजनिक मंचों पर संबोधन। सारे प्रयासों के बाद वे जैसे ही कुछ कहते हैं, ऐसे आयोजनों के उद्देश्य और उनमें की गई मेहनत को धक्का लग जाता है।
इस बार तो वे एक युवा की छवि से निकल एक अनुभवी राजनेता की उनकी छवि में घुस रहे हैं। इसका उनके ऊपर दबाव पहले से कहीं अधिक होगा। देखना यह है कि वे इस दबाव से कैसे निपटते हैं? बोलना तो उन्हें हैं और कई बार सार्वजनिक मंचों पर ‘बोलने का आयोजन’ सरल नहीं होता। फिर बार-बार हमें यह भी तो बताया जाता रहा है कि ‘ही ऑलवेज स्पीक्स हिज माइंड’।