एक हिंदी फिल्म थी- ‘दूल्हे राजा’, जिसमें एक बड़ा कॉरपोरेट अपने मैनेजर से पूछता है कि वह किसकी तरफ है? मैनेजर अपनी ऊंगली उसके प्रतिद्वंद्वी की तरफ करते हुए कहता है- आपकी तरफ। राहुल गाँधी का हाल भी कुछ ऐसा ही है। वह भी कई बार ऐसी बैटिंग करते हैं, जैसे भारत के विरोधियों को ही मदद पहुँचा रहे हैं।
ताजा मामले में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कर रहे राहुल गाँधी ने ट्विटर पर पूछा है – “चीन ने अप्रैल 2020 की यथास्थिति बहाल करने की भारत की मांग को मानने से इनकार कर दिया है। पीएम ने बिना किसी लड़ाई के चीन को 1000 वर्ग किलोमीटर जमीन दी है। क्या भारत सरकार बता सकती है कि इस क्षेत्र को कैसे पुनः प्राप्त किया जाएगा?”
China has refused to accept India’s demand of restoring status quo of April 2020.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) September 14, 2022
PM has given 1000 Sq Kms of territory to China without a fight.
Can GOI explain how this territory will be retrieved?
राहुल गाँधी का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब इसी सप्ताह उज्बेकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का सम्मेलन होने जा रहा है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों शामिल हो रहे हैं और इसी माह भारत चीन सेनाओं में बनी आम सहमति के अनुसार विवादित क्षेत्रों में डिसएंगेजमेंट (सैन्य टुकड़ियों का हटाना) प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
क्या है भारत चीन के बीच “डिसएंगेजमेंट प्रक्रिया”?
भारतीय और चीनी सेनाओं ने कुछ ही समय पहले वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के साथ गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स (PP-15) क्षेत्र में हालात सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू की थी। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) द्वारा लद्दाख में घुसपैठ की कोशिशों और LAC पार करने के बाद से मई 2020 से भारत और चीन में इस क्षेत्र को लेकर गतिरोध बना हुआ था। इन क्षेत्रों में फिंगर्स क्षेत्र, गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग्स और कोंग्रुंग नाला शामिल हैं।
LAC के पास दोनों तरफ से भारी सैनिक और भारी सैन्य उपकरण तैनात किए गए थे। इसलिए डी-एस्केलेशन को लेकर भारत चीन के बीच हो रही बातचीत में गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र विवाद का विषय रहा है।
2020 के बाद से, चीन LAC के करीब अपनी सेना के लिए बुनियादी ढांचे, रहवास और अन्य संरचनाओं का बड़े पैमाने पर निर्माण कर रहा था। इन मुद्दों पर दोनों देशों के बीच आम सहमति बनाने के लिए सीमा पार कई दौर की उच्च स्तरीय सैन्य चर्चाएं आयोजित की गईं। इसमें इसी महीने भारत और चीन ने अपने संयुक्त बयान में जानकारी दी थी कि वे सीमा पार उच्च स्तरीय सैन्य चर्चाओं के 16वें दौर में आम सहमति पर पहुंच गए हैं।
दोनों पक्षों ने कहा था, “08 सितंबर, 2022 को, इंडिया-चाइनाकॉर्प्स कमांडर स्तर की बैठक के 16वें दौर में बनी सहमति के अनुसार, गोगरा-हॉटस्प्रिंग्स (पीपी-15) क्षेत्र में भारतीय और चीनी सैनिकों का समन्वित और नियोजित तरीके से पलायन शुरू कर दिया गया है, जो सीमावर्ती क्षेत्रों की शांति के लिए अनुकूल है।”
इसलिए गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र में चल रहे गतिरोध को लेकर इसे एक “प्रमुख सफलता” माना जा रहा है।
लद्दाख को लेकर नेहरु और चीनी शासनाध्यक्ष की बातचीत से गहराया था विवाद
आइए, आपको लेकर चलते हैं इतिहास के कुछ ऐसे गलियारों में, जहाँ आप इस विवाद की जड़ें देख सकते हैं।
भारत और चीन के बीच लद्दाख के कुछ क्षेत्र को लेकर अक्सर विवाद की स्थिति बनती रहती है, क्योंकि भूस्वामित्व को विवादित बनाने में ऐतिहासिक कारक रहे हैं जिनकी आड़ चीन लेता रहा है।
24 अप्रैल 1960 को लद्दाख की सीमा को लेकर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी राष्ट्रप्रमुख प्रीमियर चाऊ एन लाई के बीच एक बेहद महत्वपूर्ण बातचीत हुई थी, जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री के बयान के कुछ अंशों ने विवाद का रूप धारण कर लिया और चीन उन्हें अक्सर अपने फायदे के लिए प्रयोग करता रहता है। इस बातचीत में नेहरू के संवाद का वह अंश दिया जा रहा है–

“आपने 1862 तक के भारतीय मानचित्रों को चीनी मानचित्रों के अनुरूप बताया। 1862 यानी करीब 98 साल पहले। दरअसल, सीमा की जमीन पर पहला पूर्ण सर्वेक्षण 1864 में, मुझे लगता है, जॉनसन द्वारा किया गया था और यह अपने प्रकार का पहला विस्तृत सर्वेक्षण है। 1862 में, 1612 स्ट्रेची और वॉकर ने बिना वहां गए एक नक्शा बनाया लेकिन जॉनसन के सर्वेक्षण के बाद वॉकर ने बाद में अपना नक्शा बदल दिया। इसलिए, कम से कम लगभग सौ वर्षों से नक्शे न तो बदले हैं और न ही उनमें कोई अंतर आया है। शायद कुछ हिस्सों को रंग में दिखाया गया था लेकिन वह केवल वास्तविक प्रशासन के तहत आ रहे क्षेत्रों और हमारे अधिकार क्षेत्र के क्षेत्रों के बीच के अंतर दिखाने के लिए है।”
नेहरु के समय खो दी थी अक्साई-चिन की महत्वपूर्ण जमीन
1962 के भारत-चीन युद्ध में करीब एक महीने में ही भारत चीन से हार गया था जिसमें भारत के करीब तीन हजार सैनिक शहीद हुए थे और भारत के करीब 43 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन ने कब्जा कर लिया था। भारत को सामरिक, व्यापारिक और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अक्साई चीन को भी गंवाना पड़ा था। भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी अवतार सिंह भसीन ने भारत-चीन के रिश्तों पर अपनी किताब ‘नेहरू, तिब्बत एंड चाइना’ पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू की गलतियों और इससे भारत को हुए नुकसान का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि 1950 के दशक में अक्साई चिन में चीन द्वारा किए जा रहे सड़क निर्माण अभ्यास को भारत सरकार ने नजरअंदाज किया था। इसके बारे में वे कहते हैं, “अगर हम उस समय चीन के प्रति नेहरू के रवैये को देखें, तो वह इसके प्रति बहुत अधिक उदार दिखाई दिए।”
सियाचिन और अक्साई−चिन पर नेहरू से पहले कभी भी चीन का अधिकार नहीं रहा था। भारत के उत्तरी व्यापार हेतु यह क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण मार्ग था। नेहरू की गलत नीतियों के कारण चीन ने 1962 में अक्साइ−चिन भारत से छीन लिया जिसमें उस समय एक भी स्थायी गाँव नहीं था। इसलिए नेहरू ने एक अतार्किक तर्क दिया था कि अक्साइ−चिन में कोई जनसंख्या न होने के कारण भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। जबकि अक्साई−चिन हथियाने और पाकिस्तान से कश्मीरी क्षेत्र के कुछ भाग 1963 में लेने के पीछे चीन के दो स्पष्ट उद्देश्य थे –
- पश्चिमी तिब्बत को सिंकियांग होते हुए चीन से सड़क मार्ग से जोड़ने का यह एकमात्र उपाय था, और
- भारत की उत्तरी सीमा के कश्मीर से कुमायूँ तक के भाग तक सड़कों का जाल बिछाकर चीनी सेना और सामग्रियों को लाने का भी एकमात्र उपाय यही था ताकि भारत पर सदैव सैन्य दवाब बना रहे।
इसलिए नेहरु का तर्क पूरी तरह निराधार था। वही सीमा विवाद आज तक भारत के लिए नासूर बना हुआ है और पाक अधिकृत कश्मीर, अक्साई चिन, लद्दाख और तिब्बती क्षेत्रों के विवाद से भारत को भूराजनीति में सामरिक, व्यापारिक, रक्षा और प्रतिनिधित्व, सभी क्षेत्रों में बहुत नुकसान झेलना पड़ा है।
हालाँकि अब राहुल गाँधी को भारतीय जमीन की फिक्र सताने लगी है, लगता है ये भारत जोड़ो यात्रा ने उन्हें उनकी कांग्रेस और पूर्वजों द्वारा इतिहास में खंडित किए गए भारत को फिर से जोड़ने की याद दिला दी है। अच्छा होता यह बातें उन्हें सही समय पर याद आ जाती।
आज भारत सरकार पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने की माँग करने लगी है जिससे चीन के कान भी खड़े हो गए हैं क्योंकि यदि भारत को खोए हुए भाग वापस मिल गये तो सम्पूर्ण पश्चिमी तिब्बत से चीन का सम्पर्क टूट जायगा और तब पूर्वी तिब्बत में भी विद्रोह भड़केंगे जिसे भारत की सहायता मिल गई तो पूरा तिब्बत चीन के चँगुल से निकल सकता है।
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