भारत में कुछ कानून ऐसे हैं जो बनाए तो सेकुलरिज्म का नाम लेकर गए हैं पर असल में वह धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में बाधक बन जाते हैं। रामजन्मभूमि जैसे ऐसे बहुत से प्राचीन मंदिर हैं जिनपर अभी दूसरे ढांचे बने हुए हैं, जबकि मंदिर के पक्ष में विस्तृत प्रमाण मौजूद हैं, फिर भी कुछ कानून उनका वास्तविक स्वरूप लौटाने में बाधा बन जाते हैं।
कुतुबमीनार पर तो बाकायदा ASI (आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) का बोर्ड यह सूचना देता है कि 24 जैन मंदिरों को तोड़कर कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद बनायी गई थी।

फिलहाल, एक मसुदाय के पास उनके अपने मंदिर पाने में जो बाधा है, हम आपको ऐसे ही दो कानूनों के बारे में बताते हैं।
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 – पूजास्थल अधिनियम 1991
वोटबैंक तुष्टीकरण के उद्देश्य से कॉन्ग्रेस ने 1991 में एक एक्ट बनाया ताकि हिन्दुओं के जितने मन्दिर 15 अगस्त 1947 तक तोड़कर उनपर दूसरे अवैध ढांचे बनाये जा चुके थे वहाँ कयामत तक वही ढांचे बने रहें, इसका नाम था, “द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट-1991” या “पूजास्थल अधिनियम-1991″। पर यह एक्ट श्रीरामजन्मभूमि मामले पर लागू नहीं हुआ था क्योंकि वह मामला आजादी के पहले से ही चला आ रहा था।

पूजास्थल अधिनियम 1991 में सुधार है अपेक्षित
1991 के पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम में एक महत्त्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता है, जिन पूजास्थलों में अन्य पंथों के पूजास्थलों को नष्ट करके बनाए जाने का प्रमाण मिले उनपर यह एक्ट लागू नहीं होना चाहिए। जहाँ कहीं ऐसा संदेह हो वहाँ पर कोर्ट की देखरेख में सर्वे कराया जाना चाहिए और मौलिक व प्राचीन पूजास्थल का पुनरुद्धार होना चाहिए, तभी यह एक्ट लोकतंत्र की मूलभावना को मजबूती दे सकेगा।
पर तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार का इस एक्ट को बनाने का उद्देश्य ही उल्टा था, उसका लक्ष्य था प्राचीन मन्दिरों को तोड़कर जो अन्य सांप्रदायिक ढांचे बनाये गए थे उन्हें सुरक्षा प्रदान करना ताकि तोड़े गये प्राचीन मन्दिरों के लिए उठी आवाजों को संविधान और कानून की आड़ लेकर दबाया जा सके। यदि यह एक्ट संविधान की मूल भावना के अनुकूल होता तो बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर 1950 में ही इस तरह के प्रावधान संविधान में जरुर शामिल करते।
उस समय रामजन्मभूमि आन्दोलन चरम पर था और इस एक्ट के निर्माण का तात्कालिक आधार हिन्दू मांगों को दबाने की साम्प्रदायिक दुर्भावना वाली राजनीति थी। इसलिए संविधान की मूलभावना की भावना भी इस एक्ट से आहत हो रही है या नहीं इसपर संशय बरकरार है। संविधान में संशोधन होकर एक्ट बनते रहे हैं, इसलिए संसद के विवादित एक्ट में भी संशोधन होना लोकतंत्र में कोई नई बात नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय इस एक्ट की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर कर चुके हैं।

न्यायालय और सरकार तो कर सकती है सुधार
पूजास्थल अधिनियम 1991 की धारा 3 में लिखा है कि कोई “व्यक्ति” किसी दूसरे के सम्प्रदाय वाले किसी पूजास्थल अथवा उसके अंश को “कन्वर्ट” नहीं करेगा :-
“3. Bar of conversion of places of worship.—No person shall convert any place of worship of any religious denomination or any section thereof into a place of worship of a different section of the same religious denomination or of a different religious denomination or any section thereof.”
कानून के विशेषज्ञों के अनुसार इस धारा का प्रभावक्षेत्र व्यापक है और सरकार के तीन अंगों के लिए सुधार का रास्ता खोलता है। न्यायालय,कार्यपालिका (सरकार) और विधायिका का कोई सम्प्रदाय नहीं होता है और न ही ये कोई “व्यक्ति” हैं। इसलिए किसी “व्यक्ति” द्वारा किसी “दूसरे” सम्प्रदाय के पूजास्थल को कन्वर्ट करने पर रोक लगाने वाली पूजास्थल एक्ट की यह धारा न्यायालय और सरकार को छूट दे सकती है। यानी, न्यायपालिका या सरकार उचित समझे तो किसी भी पूजास्थल को “कन्वर्ट” कर सकती है, बेशक उसके आधार पुख्ता होने ही चाहिए।
कुछ सांप्रदायिक वकील एक्ट का गलत अर्थ बताकर अपने लोगों को गुमराह करते हैं और देश का वातावरण बिगाड़ते हैं। वे इस एक्ट को उन जगहों और मामलों पर भी थोपने की कोशिश करते हैं जहाँ इस एक्ट की प्रासंगिकता ही नहीं है। मन्दिर के साक्ष्यों को बिना देखे ही ये लोग इस एक्ट के आधार पर ज्ञानवापी मामले को खारिज कराना चाहते थे।

इसी एक्ट का उल्लंघन करके ज्ञानवापी में हिन्दुओं द्वारा प्राचीनकाल से चली आ रही पूजा को बन्द करा दिया गया था। पर सितंबर 2022 में वाराणसी जिला अदालत ने मुस्लिम पक्ष की याचिका और सभी दावों को खारिज करते हुए साफ कर दिया कि यह मामला पूजास्थल अधिनियम और वक्फ एक्ट द्वारा प्रतिबंधित नहीं है।
ज्ञानवापी पर क्यों लागू नहीं होता ये एक्ट ?
ज्ञानवापी के मसले पर प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 लागू नहीं होता है, यह कोर्ट ने भी साफ कर दिया है। इसका कारण है कि वहाँ की माँग मस्जिद को हटाने की नहीं है, बल्कि माँग ये थी कि ज्ञानवापी परिसर में पहले से जो हिन्दू मूर्तियाँ हैं उनकी पूजा करने की अनुमति हिन्दूओं को मिले। पर यह नैतिक माँग भी प्रतिपक्ष को मंजूर नहीं थी। पर वाराणसी जिला कोर्ट ने शृंगार गौरी मंदिर में पूजन-दर्शन की अनुमति की मांग वाली याचिका को सुनवाई के लायक माना है।
कहा जाता है कि सांप्रदायिक तनाव रोकने के लिए ऐसा एक्ट आवश्यक है। अतः मन्दिरों पर समुदाय विशेष का कब्जा बना रहे इसे संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर बताया गया। क्या हिन्दुओं की संस्कृति पर अब तक जितना आघात हो चुका है उसे बनाए रखना संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है? दरअसल भारतीय संविधान में कहीं भी ऐसा बेसिक स्ट्रक्चर नहीं है, दूसरे सम्प्रदायों के पूजास्थलों पर कब्जा करना संविधान और भारतीय दण्ड संहिता का उल्लंघन है।
वक्फ एक्ट 1995 बना दूसरी फाँस

वक्फ एक्ट, 22 नवंबर, 1995 को लागू किया गया था। यही अधिनियम वक्फ बोर्ड, राज्य वक्फ बोर्डों और उसके अधिकारियों की शक्ति व कार्यों के साथ-साथ मुतवल्ली के कर्तव्यों को भी आधार प्रदान करता है।
मंदिरों की वापसी में वक्फ बोर्ड एक बहुत बड़ी बाधा बनके सामने आया है। पता ही नहीं चलता कि वक्फ कब किस जमीन को अपनी बताकर उसपर दावा ठोक दे। ऐसी ही दलील मुस्लिम पक्ष ने ज्ञानवापी मुद्दे पर रख दी थी कि ज्ञानवापी की जमीन वक्फ बोर्ड के अंतर्गत आती है, इसलिए अदालत इस पर सुनवाई नहीं कर सकती। एक अनुमान के मुताबिक वक्फ बोर्ड के पास भारतीय सशस्त्र बालों और भारतीय रेलवे के बाद सबसे अधिक जमीन है।
वक्फ बोर्ड और जमीन
वक्फ का अर्थ नजरबंदी होता है। इस्लामिक कानून के अनुसार, वक्फ वह संपत्ति है जो सिर्फ मजहबी कार्यों के लिए काम ली जा सकती है और इसके अलावा उसका कुछ नहीं किया जा सकता ना ही वह संपत्ति बेची जा सकती है। शरिया के मुताबिक, अगर किसी जमीन को वक्फ घोषित कर दिया जाए तो फिर वह अल्लाह की जमीन कहलाएगी और हमेशा के लिए वक्फ की ही रहेगी।
वक्फ ट्रिब्यूनल को एक सिविल कोर्ट माना जाता है और एक सिविल कोर्ट की सभी शक्तियां और अधिकार यह अधिनियम वक्फ बोर्ड को प्रदान करता है। ट्रिब्यूनल का कोई भी निर्णय अंतिम और सभी पक्षों पर बाध्यकारी माना जाता है। इसके अंतर्गत कोई भी वाद या कानूनी कार्यवाही किसी दीवानी अदालत के अधीन नहीं होती।
इस प्रकार, वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसले किसी भी सिविल कोर्ट से ऊपर हो जाते हैं। समानांतर न्यायपालिका की तरह व्यवहार करने वाला यह बोर्ड भारत के सेकुलर ताने बाने को छिन्न भिन्न करने का काम कर रहा है। किसी भी दृष्टि से यह कानून लोकतंत्र की मूलभावना को पुष्ट नहीं करता न ही संवैधानिक नैतिकता का ही तकाजा करता है।
यदि हर संप्रदाय के लिए ऐसे बोर्ड बना दिए जाएँ तो फिर भारत की न्याय व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या रहेगी ? खाप पंचायतों का यह मॉडर्न सांप्रदायिक सिस्टम किस ‘सेक्युलर’ व्यक्ति के दिमाग की उपज था? क्या सभी धर्मों को ऐसे बोर्ड बनाकर दिए गए हैं? अगर नहीं दिए गए हैं तो क्या यह संविधान की पंथनिरपेक्ष भावना के अनुकूल है ?
तमिलनाडु में पूरा गाँव हो गया वक्फ के नाम

हाल ही में तमिलनाडु के त्रिची के पास तिरुचेंथुरई गाँव में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया था जब गाँव का एक व्यक्ति राजगोपाल अपनी एक एकड़ जमीन बेचने रजिस्ट्रार दफ्तर गए तो कहा गया यह जमीन और यह पूरा गाँव को वक्फ बोर्ड के मालिकाना हक में है। तमिलनाडु वक्फबोर्ड ने इस पूरे गाँव की जमीन अपने नाम करा ली और किसी को कानों कान पता भी नहीं चला।
राजगोपाल को कहा गया कि इस जमीन के खरीद बेचान के लिए वक्फ बोर्ड की NOC लेनी होगी। यह खबर जानने के बाद गाँव के लोग चौंक गए क्योंकि यह एक हिन्दू बहुल गाँव है और गाँव में ही 1500 साल पुराना चन्द्रशेखर स्वामी शिव मंदिर मौजूद है।
पता नहीं वक्फ का यह गंदा खेल कितने गाँवों, जगहों, संपत्तियों, मंदिरों के साथ चल रहा होगा? ऐसे कानून विभिन्न औपनिवेशिक मान्यताओं की देन हैं, जिनका अंत एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
कॉन्ग्रेस ने “दान” कर दी वक्फ को दिल्ली की प्राइम जमीनें
मीडिया हाउस टाइम्स नाऊ की एक ताजा रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने लुटियंस दिल्ली में 123 सरकारी संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को दान कर दिया था। यह काम 2014 के आम चुनावों से एन पहले किया गया था। कैबिनेट के निर्णय के बाद कनॉट प्लेस, अशोक रोड, मथुरा रोड और कई अन्य वीवीआईपी जगहों पर स्थित संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को सौंप दिया गया था।
#WaqfLandSecretNote#EXCLUSIVE | Days before the 2014 elections, the UPA govt 'gifts' 123 prime properties in Delhi to Waqf.
— TIMES NOW (@TimesNow) September 16, 2022
"Please refer to the telephonic request", @RShivshankar takes us through the details of the 'secret note'. pic.twitter.com/TfcDOShyPJ